ख्वाबो के पैरहन - 1 Santosh Srivastav द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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ख्वाबो के पैरहन - 1

ख्वाबो के पैरहन

पार्ट - 1

चूल्हे के सामने बैठी ताहिरा धीमे-धीमे रोती हुई नाक सुड़कती जाती और दुपट्टे के छोर से आँसू पोंछती जाती| अंगारों पर रोटी करारी हो रही थी| खटिया पर फूफी अल्यूमीनियम की रक़ाबी में रखी लहसुन की चटनी चाटती जा रही थी- “अरी, रोटी जल रही है..... दे अब| रोती ही जाएगी क्या?”

ताहिरा ने आँखें पोंछीं और रोटी की राख झाड़ फूफी को पकड़ा दी.....बस, आख़िरी दो लोई बची है| फूफी हमेशा अंत में खाती हैं, जब सब खा चुकते हैं| यों भी घर में रहता ही कहाँ है कुछ..... रोज़ का कुआँ खोदना, रोज़ का पानी पीना| तभी दड़बे से निकलकर दो मुर्गियाँ लड़ने लगीं और उनमें से एक उड़ती हुई फूफी की रक़ाबी पर लद्द से गिर पड़ी|

“सत्यानाश हो करमजलियों का.....सारा खाना बेकार कर दिया|” फूफी ने रक़ाबी पटक दी और उसी खटिया पर चित्त लेट गई|

ताहिरा अपना दुख भूल गई| फूफी भूखी रहें यह दुख अधिक तीखा था| पिछले दो दिनों से वह हर पल रोई है| हर पल अपने नसीब पर हँसने और रोने को जी चाहा है.....कैसी विकट स्थिति हो गई| हाथ पसारे सुख और किर्च-किर्च होता ख़्वाब| ख़्वाब जो जन्नत और परीज़ादियों से भी ज़्यादा हसीन है और जिसमें उसे अपनी हर धड़कन पर सौ-सौ ताजमहल नज़र आते हैं| खुदा उसे ही क्यों ये दिन दिखा रहा है| आँखों का ज्वार कितनी बार उमड़ा है.....कितनी बार आहों की गर्म छुअन से होंठ पपड़ाये हैं| कोई कांधा होता और वह सिर टिका कर रो लेती|

मुर्गियाँ फिर फड़फड़ाईं| उसने कोने में टिकी लकड़ी उठाई और हुश-हुश करती मुर्गियों को दड़बे में बंद कर आई.....दड़बे क्या थे, आँगन में रखे लकड़ी के खोखे थे| भाई जान ने उन पर लोहे की जाली ठोक दी थी जो ऊपर-नीचे सरकती थी| इन्हीं में मुर्गियाँ रहती थीं| कुल जमा छः| थी तो दो दर्जन, पर पिछले हफ़्ते जाने किस रोग में सबकी सब मर गईं| बस छः बचीं| मुर्गियों को बंद कर उसने बाकी की दो लोइयाँ बेलीं और अंगारों पर रखकर फूफी के पास आई| वे दुपट्टे से मुँह ढँके लेटी थीं|

“फूफी! उठो.....खा लो|”

“जाने दे, अब है ही क्या जो खाऊँ.....खुदा ने ज़माने भर की ग़रीबी हमारे ही दुपट्टे में बाँधी है|”

ताहिरा खुद ही कौर बना-बना कर फूफी को खिलाने लगी| लहसुन की चटनी, ज्वार की गरम रोटियाँ उर ताहिरा का प्यार.....फूफी में जान-सी आ गई| वे ताहिरा को निहारने लगीं| गोरा सुतवाँ चेहरा, बड़ी-बड़ी पलकें.....सुन्दर भरे-भरे से गुलाबी होंठ.....नाजुक-सी गर्दन- ‘या अल्लाह! इतना नूर, इतना शबाब इस झोपड़ी में क्यों सकेला तूने? इस शबाब को छुपाने लायक हमारे दुपट्टे का हौसला कहाँ?’

एका-एक फूफी के दिमाग़ में बिजली तड़प उठी.....खिरचा किया, फिर आठ दस कुल्ले किये और भाभी के सिरहाने से पानदान उठाकर पान लगाने लगीं| भाई-जान खा-पीकर तख़त पर सो रहे थे और उनके पांयते भाभी सिकुड़ी हुई लेटी थीं| ताहिरा ने चूल्हा ठंडा कर पोता, बर्तन माँजे और चटाई बिछाकर लेट गई| फूफी के सरौता चलाने की आवाज़ से भाईजान ने करवट बदली|

“जाग रहे हो क्या भाईजान! ऐ भाभी.....! जाने कैसे आप लोग आराम से सो रहे हैं? मेरे दिल में तो हौल-सा उठ रहा है|”

“सोये कहाँ हैं रन्नी बी, जो तुम सोच्च रही हो वही हम भी सोच रहे हैं| नींद-चैन सब उड़ गया|” भाभीजान ने उठते हुए कहा|

भाईजान भी तकिये पर सीधे हो गये| हवा तेज़ चली तो गोबर से लिपा कच्चा आँगन नीम के पीले पत्तों के साथ चरमरा उठा|

“भाईजान, हम लोगों के घर इत्ता अच्छा, अमीर खानदान का रिश्ता आया है, क्या आपको इसमें खुदा की मरज़ी नज़र नहीं आती?”

“हाँ, .....चूल्हे की क में मिला दो लौंडिया को, ऐसी भी क्या अमीरी देखना?” भाभीजान ने कहा|

“अय, .....हय, .....ऐसी क्या बात है भाभीजान जो खार खा रही हो? अपनी औक़ात भी तो देखो.....खाने के लाले पड़े रहते हैं.....उधर ताहिरा राज करेगी| दुबई, मस्क़त व्यापार फैला है| नामी-गिरामी लोग हैं| हमारी क़िस्मत जो अपनी बच्ची पसंद आई वरना.....”

“रहने भी दो रन्नी बी, व्यापार तो तुमने देखा पर क्या उम्र भी देखी? सिर पर बैठी दो-दो सौतनें देखीं? पूरे पचास का है और हमारी बिटिया सत्रह की|” भाभीजान ने कहा|

भाईजान उठ बैठे| “पान तो दो रन्नी.....अपनेई फ़ैसले किये जा रही हो तुम दोनों, ये समय बहस का नहीं सोचने का है|”

“वोई तो मैं कह रही हूँ.....भाभी तो बस सोचें न समझें.....कह दें जो मूँ में आई|” कहती फूफी पान लगाने लगीं|

“क्यों न बोलूँ? अम्मा हूँ उसकी? देख सुनकर मक्खी निगल लूँ?”

अबकी बोलने की बारी भाईजान की थी पर वे चुप लगा गये| ग़रीबी और भुखमरी को देखते हुए वे शायद इस रिश्ते को मन ही मन कबूल कर चुके हैं| वे सोच रहे थे सत्रह साल की ताहिरा अनुकूल वर से ब्याह दी गई तो भी क्या वे शादी का ख़र्च उठा पायेंगे? किसके सामने झोली फैलायेंगे? दोनों बेटे हर महीने माल-असबाब लेकर घर से चलते हैं और फुटपाथ पर दुकान लगाकर माल बेचते हैं| वापस लौटकर फिर वही मेहनत.....| रात-दिन कुटाई-पिसाई.....काग़ज को भिगोना, मथना, फिर तैयार मिट्टी को खिलौनों के साँचे में भर कर आँगन में लाइन से सूखने रखना| औरतें उन्हें रंग-बिरंगा रूप देती हैं| किन्तु अब यह धन्धा चलता नहीं| बाज़ार में मिट्टी के खिलौनों की माँग नहीं है| अब तो प्लास्टिक के एक से एक खिलौने चले हैं कि देखकर बड़ों का भी मन एक बार बचपन की ओर लौटने को करता है| टीन के चाबी वाले खिलौने भी चल पड़े हैं.....सभी जगह तेज़ी और हड़बड़ाहट है| मिट्टी के खिलौनों को पूछता कौन है? नहीं तो, क्या शान थी इनकी? तरह-तरह के जानवरों का साँचा है उनके पास| पेपर, फूस कूटकर मिली, खूब रौंदी चिकनी मिट्टी को साँचों में भरकर जब दोनों बेटे मिट्टी को आकार देते हैं तो देखते ही देखते चिड़ियाघर साकार होने लगता है| शेर, भालू, तोता, मैना, कुत्ता, बिल्ली.....बहुओं के हाथ में हुनर था.....एकदम असली लगते जानवर, ऐसा रंग लगाती उन पर| इन खिलौनों से ही पता चलता था उनका खानदान.....| बाबा तो अपने नाम के आगे अपना धंधा जोड़कर चलते, ‘सज्ज़ाद अली खिलौने वाला|’ आज के ज़माने में अब पीढ़ियों पहले का नाम मौजूँ लगता है? अब तो रेशमवाला, दारूवाला, ऊँटवाला, जरीवाल.....मुए सरनेम हुआ करे हैं, तब की बात ही और थी.....| हाट में उनकी जगह रिज़र्व रहती| हर हाट में तख़त पर तरह-तरह के खिलौने सजाये जाते.....इतने बिकते कि शाम तक आये बच्चे निराश घर वापस जाते| अब भी भाई जान के बेटे, नूरा और शकूरा मेले, हाट में खिलौने बेचने जाते हैं.....ख़ासकर दिवाली, दशहरा और ईद के दिनों में अच्छी बिक्री हो जाती है, तब घर में जश्न सा मनता है.....सबके लिए कपड़े बनवाये जाते हैं..... हंडिया में पूरा दो किलो मीट पकता है, गेहूँ की रोटियाँ बनती हैं| कभी इच्छा हुई तो शीरकुरमा भी बन जाता है.....ख़ासकर तब जब भाईजान बाज़ार से लौटते हुए खोपरे की भेली और चिरौंजी ले आते हैं| बाकी समय फिर वही ढाक के तीन पात| कुढ़न और निराशा में ज़िन्दग़ी गुज़र रही है|

यह मकान भी अब गिरने को है| वैसे इसे मकान कहना भी मकान का मज़ाक उड़ाना है| मकान में सिर्फ़ एक बड़ा कमरा और रसोई घर है| जब दोनों बेटों की शादी हुई तब बड़े कमरे के आगे एक कमरा और बनाया गया| कच्चा, खपरैल वाला| जिसमें बाँस के ऊपर टाट का एक पर्दा डालकर कमरे का विभाजन कर दिया गया| एक तरफ नूरा और उसकी बीवी जमीला सोते थे और दूसरी तरफ शकूरा अपनी बीवी सादिया के साथ पड़ा रहता| अपने में मस्त, दीन दुनिया का होश नहीं| जो बिका उससे पाँच-छै: महीने पेट-अधपेट रह गुज़र ही जायेंगे, सो अभी से क्या बिसूरना....., काहे की चिन्ता परेशानी?..... नतीजा यह हुआ कि बेरोक टोक बच्चे पैदा करती गईं जमीला और सादिया| यूँ भी ग़रीबों की आस ही इसी में कि जितने हाथ उतनी अधिक कमाई, पर किसी ने यह न सोचा कि उन हाथों को परिश्रमी बनाने के लिए खुराक चाहिए जिसका कोई इंतज़ाम नहीं| नूरा, शकूरा मिट्टी कूटने के अतिरिक्त कुछ सोच ही नहीं पाये| भाईजान रेडीमेड कपड़े फुटपाथ पर बेचकर बारह लोगों की गृहस्थी घसीट रहे थे| फूफी सिलाई, बुनाई-कढ़ाई, गोटा-सलमा-सितारे टाँक कर चाय-नाश्ते का इंतज़ाम कर लेती थी| दिनभर उँगलियों में सुई दबी रहती| कभी शादी का जोड़ा तैयार हो रहा है तो कभी ईद-बक़रीद के कपड़े.....अब तो उनकी कशीदाकारी के चर्चे बड़ी कॉलोनियों में भी होने लगे हैं| अमीरज़ादियों के सलवार-कुर्ते और साड़ियों पर कढ़ाई करने का ऑर्डर भी मिलने लगा, पर हो कहाँ पाता है उतना| तबीयत नासाज रहती है| कुछ न कुछ लगा ही रहता है शरीर से| कभी खाँसी, कभी जोड़ों का दर्द.....कभी सिरदर्द| आँखें भी कमज़ोर हो गई हैं| चश्मे की ज़रुरत है पर आज-कल में टाल देती हैं फूफी| अपने ऊपर तो ख़र्च करना जानती ही नहीं वे| अल्लाह ने न जाने क्यों दुनिया में भेजा उन्हें? न पति का सुख देखा न औलाद का| कम उम्र में विधवा हो भाई की छाती पर आ बैठीं| खुदा उम्रदराज़ करे भाईजान को| चेहरे पर शिकन तक नहीं आये कभी| जैसे ताहिरा, नूरा, शकूरा वैसी ही लाड़ली फूफी हैं उनकी| भाभीजान भी कुछ नहीं कहतीं.....भले ही छप्पर फूस का है पर लहज़ा-लिहाज उच्च घराने जैसा है| बातों में सलीका, आपस में प्यार मुहब्बत.....एकता.....यही सब देखकर और ताहिरा की खूबसूरती देखकर ही तो डायमंड व्यापारी भरत शाह ने शाह जी तक उनके ख़ानदान की चर्चा भेज दी थी|

भरत शाह के घर फूफी के कशीदा किये कपड़ों की बड़ी माँग थी| सालों से जा रही हैं फूफी उनके घर.....कितनी चादरें, साड़ियाँ, गिलाफ़, कमीज़ें काढ़-काढ़ कर फूफी ने दी हैं उन्हें.....| आज उन्हीं के द्वारा सुझाया गया आलीशान रिश्ता आया है ताहिरा के लिए| भाईजान बड़े पशोपेश में थे सो एक ट्रक ड्राइवर के हाथ संदेश भेजकर नूरा-शकूरा को वापस बुलवा लिया था| माल बेचे बगैर वे वापस लौट आये थे| दो दिन हो गये रिश्ता आये, कल तक उत्तर देना है| सभी सोच रहे थे, इतने बड़े घर से रिश्ता आना न जाने किस पुण्य का सबाब था| सभी को लग रहा था कि ताहिरा के कारण ही उनकी ज़िन्दग़ी सँवरने वाली है| शकूरा ने तो दुबई जाने का ख़्वाब भी देख डाला था| लेकिन भाभीजान अड़ी बैठी थीं|

“ज़रा ताहिरा की सूरत तो देखो, लगता है शरीर से सारा खून किसी ने निचोड़ लिया है| अरे! सत्रह बरस की जान क्या समझती नहीं कि उसे बच्चा पैदा करने की मशीन बना कर भेजा जा रहा है|”

वे अपनी भारी आवाज़ में चीख़-सी रही थीं| कोई कुछ सुनने को तैयार न था| बस, एक तरफ़ ताहिरा थी जो चुपचाप रोये जा रही थी, दूसरी तरफ़ पूरा परिवार दोनों बेटे, बहुएँ, फूफी.....| केवल भाभीजान रिश्ते के खिलाफ़ थीं और भाईजान चुप थे| इंतज़ार कर रहे थे कि फैसला अपने आप हो जाये|

शाम हो रही थी| ढलती धूप की किरणें खपरों से छन-छन कर कमरे के भीतर आ रही थीं| सुबह तो ख़ैर-गुज़र ही जाती पर दोपहर की धूप में तपिश रहती| जब हवा नम होती तो अच्छा लगता वरना इस तपिश में सब बेचैन से रहते.....शाम को अधिक| सुबह और शाम मिट्टी छानने का काम किया जाता| दोपहर की कड़ी धूप में दोनों बेटे और भाईजान साँचों में से खिलौने निकालते| सूखने पर रंग-रोगन किया जाता था| बरसात में तो इस घर का और भी बुरा हाल हो जाता था| तब यह कमरा देहात की तलैया का रूप धारण कर लेता था| हर साल वे लोग कमरे की सीलिंग पक्की कराने की सोचते और हर साल बात टल जाती| अब जबकि इतने अमीर घराने से रिश्ता आया है और भरपूर आर्थिक मदद मिलने का भी वादा है तो पूरा परिवार अपने-अपने ढंग से सोच रहा है| बस फूफी ही जानती हैं कि ताहिरा को इस रिश्ते से इंकार क्यों है? शाम घिरती आ रही है.....अँधेरे के विस्तार में प्रश्न उछल रहा है.....’कल उत्तर देना है.....कल उत्तर देना है|’

ताहिरा की इंकारी पर, नूरा-शकूरा क्रोध से बरस चुके थे| जमीला और सादिया मन ही मन सास और ताहिरा को कोसती टाट के पर्दे के पीछे अपने कोनों में दुबक गई थीं| भाभीजान तख़त पर पड़ी, लम्बी-लम्बी साँसें भर रही थीं| कभी बौखलाकर उठ बैठतीं और जल्दी-जल्दी पंखा झलने लगतीं| फूफी ही बात को सम्हाल सकती हैं| सभी जानते हैं, फूफी को खुद भी इच्छा थी कि ताहिरा अमीर ख़ानदान में ब्याह दी जाये| अपनी सैंतालीस वर्ष की ज़िन्दग़ी में उन्होंने कभी अच्छे दिन नहीं देखे थे| चौदह वर्ष की थीं तभी उनका निक़ाह पैंतीस वर्षीय दुहिजवें मर्द से कर दिया गया था| डेढ़-दो साल वे पति के साथ रहीं और रात-दिन औलाद न होने के गुनाह के कारण प्रताड़ित की गईं| शराब की लत से लीवर फेल हो जाने और शरीर का बुखार दिमाग़ तक पहुँच जाने के कारण उनके पति की मृत्यु हो गई| भाईजान उन्हें हमेशा के लिये अपने घर ले आये| तबसे आज तक वे लगातार तीस बरसों से यहाँ रह रही हैं| आते ही उन्होंने घर का काम ऐसा सम्हाला कि भाभीजान तो तख़त से नीचे उतरी ही नहीं| भाभीजान ही नहीं, बल्कि पूरे घर के लिये फूफी ज़रुरत बन गईं| वे हैं भी इतनी होशियार और समझदार कि सब उनका लोहा मानते हैं| मुहल्ले भर की खोज़खबर रखती हैं वे| कभी वे भाईजान पर बोझा नहीं बनीं| आधी-आधी रात तक कपड़ों पर कशीदा काढ़तीं, तिल्ले, गोटे, मुकेश, सलमा-सितारे टाँकने का काम करतीं| इतनी मेहनत में भी कभी अच्छा खाने पहनने की सुध नहीं रही| लेकिन दूसरों के लिये अच्छा करने की चाह थी| भाईजान के परिवार को फूफी अपने रोएँ-रोएँ से चाहती थीं और क्यों न हो ऐसा?.....ढहते-टूटते किनारे को थामा था भाईजान ने वरना फूफी की ज़िन्दग़ी की नदी तो कबकी ज़मीन में समा जाती| रह जाती चिटकती तलहटी की ढूह| फूफी अपनी ज़िन्दग़ी का मतलब तलाशते-तलाशते स्वयं बेमतलब हो उठी हैं| भाईजान के झुके कंधों पर रखा ख़ानदान का बोझ फूफी को रुला डालता| भरत शाह के ज़रिये आई रिश्ते की बात ने इसीलिए तो फूफी को मथ डाला था| ऐसा नहीं कि ताहिरा से प्यार नहीं, यह भी नहीं कि उसे जानबूझकर आग में झोंक रही हैं वे.....| अरे, आग कैसी? हर औरत माँ बनती है.....चाहे ताहिरा-सी नाज़ुक हो या भाभीजान-सी अक्खड़| फिर भरापूरा ख़ानदान, ऐश-आराम के साधन| मर्द का क्या उमर देखना.....और तीन शादियाँ तो इस्लाम में जायज हैं| वजह है न इसकी, औलाद का न होना| शाह जी के इतनी बड़ी मिल्क़ियत का वारिस नहीं, इसीलिये तो इस शादी का प्रस्ताव है| वो तो कहो फूफी की बदौलत उस घर तक पहुँच हुई, वरना ग़रीबों को पूछता कौन है?

सबकी नज़र फूफी पर लगी थी| इस संकट से वे ही उबार सकती हैं| या तो शाह जी को सीधी इंकारी या ताहिरा की रज़ामंदी.....| ताहिरा राज़ी हो जाये तो भाभी भी मान जायेंगी| फूफी ने हिम्मत बटोरी और चटाई पर लेटी ताहिरा को हलके से हिलाया- “ताहिरा! सुन तो ज़रा बेटी|”

ताहिरा कुनमुनाई- “ऊँ.....सोने दो न फूफी.....अभी तो लेटी हूँ|”

“चल! ज़्यादा बहाने मत बना| रोई ही है सुबह से और कहती है अभी सोई है| चल नीम की छाँव में चलते हैं| तोते बैठे हैं डालों पर.....देखेगी नहीं|”

फूफी नन्ही बच्ची-सा बहलाकर ताहिरा को आँगन में ले आईं| भाभीजान ने अपनी बात चलती न ||देख मुँह पर दुपट्टा लपेटा और तख़त पर लुढ़क गईं| भाईजान उठकर बाहर चल दिये| फूफी ने दड़बों से टिकी खटिया नीम की छाँव में बिछा दी| पतझड़ का मौसम था| नीम के पत्ते, सड़क के किनारे लगे आम-जामुन आदि पेड़ों के पीले पत्ते भी झरकर हवा में उड़ते और आँगन में बिछ जाते| सुबह-शाम आँगन झाड़ना पड़ता| फूफी के लिये तो यही आँगन बैठक और शयनकक्ष है| अंदर बहुएँ-भाभीजान, फूफी ने कभी दख़ल नहीं दिया उनकी आज़ादी में| जब बरसात आती, वे छोटेसे बरामदे में अपनी खटिया डाल लेतीं| आँगन जहाँ ख़तम होता है वहाँ ढलान पर चौड़ी खाई-सी है| खाई में झाड़-झँखाड़ उगा है.....| दो-तीन शीकाकाई के काँटेदार दरख़्त हैं| फूफी हरी-हरी शीकाकाई की फलियाँ तोड़कर आँगन में सुखातीं| घर की सभी औरतें उसी शीकाकाई से सिर धोती थीं| शीकाकाई से धुले ताहिरा के रेशमी बालों वाला सिर उन्होंने अपनी गोद में समेटा और प्यार से चुम्बन लिया| आँख की सीध में नीम की झुकी डाल पर दो तोते बैठे थे| कोई और दिन होता तो ताहिरा मस्ती में भरकर सीटी बजाते हुए तोतों से बात करती- ‘मियाँ मिट्ठू, मियाँ मिट्ठू’ किन्तु आज ज़बान ख़ुश्क थी| उसने भर नज़र फूफी को देखा| चकित आँखों में प्रश्न हैं.....या उठते बवंडर का आभास.....‘फूफी तुम जानकार तो हो|’

“बेटी, तू कहेगी तभी मुझे पता चलेगा क्या? अरी पगली, मैं तो तेरी हर साँस से वाक़िफ़ हूँ.....| बता, वह कल का छोकरा फैयाज़ क्या सुख देगा तुझे?”

ताहिरा ने चौंककर फूफी को देखा-“तुम तो सचमुच फूफी.....”

“हाँ, सब जानती हूँ मैं, मेरे जिगर के टुकड़े| टूटे-फूटे घर में रहता है फैयाज़.....| बी. ए. की परीक्षा की तैयारी कर रहा है.....| तुझसे छुप-छुप कर मिलता है| कभी चर्च के पीछे की करौंदे की झाड़ियों के पास.....कभी मंदिर की ढलान पर|”

ताहिरा की आँखें विस्फारित हो उठीं| उसने फूफी के गले में बाहें डाल दीं और बेतहाशा चिपक गई|

“अरी मेरी मुनिया,.....इस उमर में सही-ग़लत की पहचान थोड़ी रहती है.....| तू क्या सोचती है बी. ए. करते ही उसकी क़िस्मत खुल जायेगी? उधर गाँव में उसकी बहन, अम्मी, अब्बू सब आस लगाये बैठे हैं| ऐसे क्या सुरख़ाब के पर लग जायेंगे उसमें कि वह तुझे रानी बनाकर रखेगा?”

“फूफी, मैं उसे बहुत प्यार करती हूँ| और कुछ सोचा नहीं कभी|”

“नहीं सोचा तो अब सोच| होश में आ| ज़िन्दग़ी को परे रखकर नहीं, सामने रखकर सोच|”

ताहिरा जो छोटी-छोटी हिचकियों के साथ रोने लगी थी, अचंभित हो उठी| फूफी को इतना सब मालूम है फैयाज़ के बारे में और वह सोचती थी कि उसका बड़ा रहस्यमय प्यार है| लेकिन एहतियात के बावजूद कुछ छुपा न था फूफी से| ताहिरा जानती थी अब्बू शायद निक़ाह के लिये राज़ी हो भी जायें पर अम्मी नहीं| उनके उसूलों से घर की ईंटें तक काँपती थीं| अगर उनको पता चल गया हो तो?

“फूफी तुमने अम्मी को कुछ बताया तो नहीं?”

“अरे नहीं! पागल हुई है क्या? तू मेरी बेटी है, तेरी शिकायत करूँगी?”

ताहिरा फूफी से लिपटकर ज़ार-ज़ार रो पड़ी| फूफी समझ चुकी थीं कि उनका चलाया तीर सही मर्म पर लगा है| ताहिरा शाह जी का रिश्ता मान जायेगी| वे उसका सिर सहलाती रहीं|

आँसू थमे तो ताहिरा ने अपनी हिरनी-सी आँखें फूफी के चेहरे पर टिका दीं- “लेकिन फूफीजान, उनकी तो पहले ही दो बीवियाँ हैं? मुझे डर लगता है फूफी, इतने बड़े मर्द से|”

“ताहिरा.....मेरी गुड़िया, तुझे ऐसे तो न भेज देंगे| पहले सारी तहकीकात करेंगे| मैं ख़ुद जाकर सब देख आऊँगी| जँचेगा तो हाँ कहूँगी| कोई ज़बरदस्ती थोड़े ही है|” पल भर ख़ामोशी छाई रही| डाल पर बैठे तोतों ने पंख फड़फड़ाये और घर के पिछवाड़े को घनी अमराई की ओर उड़ गये| फूफी उठीं, ताहिरा के गालों को आँचल से पोंछा, फिर चुम्बन लिया और बोलीं- “चल! अदरक वाली चाय पिलाती हूँ तुझे|”

ताहिरा समझ चुकी थी कि दोनों भाई जान, तेज़-तर्रार भाभियों और अम्मी के आगे उसकी एक नहीं चलेगी| यदि ग़लती से भी फैयाज़ का नाम अम्मी के सामने रख दिया तो वे उसे फाड़कर रख देंगी| फिर उसका साथ ही कौन देगा| थोड़ी रही सही आशा फूफी से थी वह भी जाती रही|

फूफी चाय बनाने चली गई थीं| अँधेरा पूरी तरह फैल चुका था.....मानो यह अँधेरा आने वाले कल का प्रतीक़ था जब उसके साथ फैयाज़ नहीं होगा, प्यार से शराबोर उसका वजूद नहीं होगा|.....न कहीं पत्तों की खड़कन होगी, न हवा का शोर|.....मानो डाल के तमाम तोतों की गर्दन मरोड़ दी जायेंगी| अमराई में आम नहीं फलेंगे और.....और.....|